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हनुमान प्रसाद पोद्दार (1892 ई - २२ मार्च १९७१) का नाम गीता प्रे स स्थापित करने के पिये

भारत व पवश्व में प्रपसद्ध है । गीता प्रेस उत्तर प्रदे श के गोरखिुर नगर में स्स्थत है । उनको प्यार
से भाई जी कहकर भी बुिाते हैं ।

पररचय

अनुक्रम
 1 िररर्य
 2 जीवन
 3 स्वतंत्रता संग्राम
 4 पगरफ़्ताररयां
 5 गीताप्रेस
 6 अकाि
 7 समािन
 8 इन्हें भी दे खें
 9 बाहरी कप़ियााँ

आज गीता प्रेस गोरखिुर का नाम पकसी भी भारतीय के पिए अनजाना नहीं है । सनातन पहं दू
संस्कृपत में आस्था रखने वािा दु पनया में शायद ही कोई ऐसा िररवार होगा जो गीता प्रेस
गोरखिुर के नाम से िररपर्त नहीं होगा। इस दे श में और दु पनया के हर कोने में रामायण,
गीता, वेद, िुराण और उिपनषद से िेकर प्रार्ीन भारत के ऋपषयों -मुपनयों की कथाओं को
िहाँ र्ाने का एक मात्र श्रे य गीता प्रेस गोरखिुर के संस्थािक भाईजी हनुमान प्रसाद िोद्दार को
है । प्रर्ार-प्रसार से दू र रहकर एक अपकंर्न सेवक और पनष्काम कमचयोगी की तरह भाईजी ने
पहं दू संस्कृपत की मान्यताओं को घर-घर तक िहाँ र्ाने में जो योगदान पदया है , इपतहास में
उसकी पमसाि पमिना ही मुस्िि है ।

जीवन
भारतीय िंर्ां ग के अनुसार पवक्रम संवत के वषच १९४९ (सन् 1892 ई) में अपश्वन कृष्ण की प्रदोष
के पदन उनका जन्म हआ। इस वषच यह पतपथ शपनवार, 6 अक्टू बर को है । राजस्थान के रतनगढ़ में
िािा भीमराज अग्रवाि और उनकी ित्नी ररखीबाई हनुमान के भक्त थे, तो उन्होंने अिने िुत्र
का नाम हनुमान प्रसाद रख पदया। दो वषच की आयु में ही इनकी माता का स्वगचवास हो जाने
िर इनका िािन-िोषण दादी मााँ ने पकया। दादी मााँ के धापमचक संस्कारों के बीर् बािक
हनुमान को बर्िन से ही गीता, रामायण वेद, उिपनषद और िुराणों की कहापनयााँ िढ़न-सुनने
को पमिी। इन संस्कारों का बािक िर गहरा असर ि़िा। बर्िन में ही इन्हें हनुमान कवर्
का िाठ पसखाया गया। पनंबाकच संप्रदाय के सं त ब्रजदास जी ने बािक को दीक्षा दी।
स्वतंत्रता संग्राम
उस समय दे श गुिामी की जंजीरों में जक़िा हआ था। इनके पिता अिने कारोबार का वजह
से किकत्ता में थे और ये अिने दादाजी के साथ असम में। किकत्ता में ये स्वतंत्रता आं दोिन
के क्रां पतकाररयों अरपवंद घोष, दे शबंधु पर्तरं जन दास, िं झाबरमि शमाच के संिकच में आए और
आजादी आं दोिन में कूद ि़िे । इसके बाद िोकमान्य पतिक और गोिािकृष्ण गोखिे जब
किकत्ता आए तो भाई जी उनके संिकच में आए इसके बाद उनकी मुिाकात गााँ धीजी से हई।
वीर सावकरकर द्वारा पिखे गए '१८५७ का स्वातं त्र्य समर ग्रंथ' से भाई जी बहत प्रभापवत हए
और १९३८ में वे वीर सावरकर से पमिने के पिए मुंबई र्िे आए। १९०६ में उन्होंने कि़िों में
गाय की र्बी के प्रयोग पकए जाने के स्खिाफ आं दोिन र्िाया और पवदे शी वस्तुओं और
पवदे शी कि़िों के बपहष्कार के पिए संघषच छे ़ि पदया। युवावस्था में ही उन्होंने खादी और
स्वदे शी वस्तुओं का प्रयोग करना शुरु कर पदया। पवक्रम संवत १९७१ में जब महामना िं . मदन
मोहन मािवीय बनारस पहं दू पवश्वपवद्यािय की स्थािना के पिए धन संग्रह करने के उद्दे श्य से
किकत्ता आए तो भाईजी ने कई िोगों से पमिकर इस कायच के पिए दान-रापश पदिवाई।

गगरफ़्ताररयां
किकत्ता में आजादी आं दोिन और क्रां पतकाररयों के साथ काम करने के एक मामिे में
तत्कािीन पब्रपिश सरकार ने हनुमान प्रसाद िोद्दार सपहत कई प्रमुख व्यािाररयों को राजद्रोह के
आरोि में पगरफ्तार कर जेि भेज पदया। इन िोगों ने पब्रपिश सरकार के हपथयारों के एक
जखीरे को िूिकर उसे पछिाने में मदद की थी। जेि में भाईजी ने हनुमान जी की आराधना
करना शुरु करदी। बाद में उन्हें अिीिुर जेि में नजरबंद कर पदया गया। नजरबंदी के दौरान
भाईजी ने समय का भरिूर सदु ियोग पकया वहााँ वे अिनी पदनर्याच सुबह तीन बजे शुरु करते
थे और िूरा समय िरमात्मा का ध्यान करने में ही पबताते थे। बाद में उन्हें नजरबंद रखते हए
िंजाब की पशमििाि जे ि में भेज पदया गया। वहााँ कैदी मरीजों के स्वास्थ्य की जााँ र् के पिए
एक होम्योिैपथक पर्पकत्सक जेि में आते थे , भाई जी ने इस पर्पकत्सक से होम्योिैथी की
बारीपकयााँ सीख िी और होम्योिैथी की पकताबों का अध्ययन करने के बाद खुद ही मरीजों का
इिाज करने िगे। बाद में वे जमनािाि बजाज की प्रेरणा से मुंबई र्िे आए। यहााँ वे वीर
सावरकर, नेताजी सुभाष र्ंद्र बोस, महादे व दे साई और कृष्णदास जाजू जैसी पवभूपतयों के पनकि
संिकच में आए।

मुंबई में उन्होंने अग्रवाि नवयुवकों को संगपठत कर मारवाडी खादी प्रचार मंडल की स्थािना
की। इसके बाद वे प्रपसध्द संगीतार्ायच पवष्णु पदगंबर के सत्संग में आए और उनके हृदय में
संगीत का झरना बह पनकिा। पफर उन्होंने भस्क्त गीत पिखे जो `ित्र-िु ष्प' के नाम से प्रकापशत
हए। मुंबई में वे अिने मौसेरे भाई जयदयाि गोयन्का जी के गीता िाठ से बहत प्रभापवत थे।
उनके गीता के प्रपत प्रेम और िोगों की गीता को िेकर पजज्ञासा को दे खते हए भाई जी ने
इस बात का प्रण पकया पक वे श्रीमद् भागवद्गीता को कम से कम मूल्य िर िोगों को उििब्ध
कराएं गे। पफर उन्होंने गीता िर एक िीका पिखी और उसे किकत्ता के वापणक प्रेस में
छिवाई। िहिे ही संस्करण की िााँ र् हजार प्रपतयााँ पबक गई। िेपकन भाईजी को इस बात का
दु :ख था पक इस िुस्तक में ढे रों गिपतयााँ थी। इसके बाद उन्होंने इसका संशोपधत संस्करण
पनकािा मगर इसमें भी गिपतयााँ दोहरा गई थी। इस बात से भाई जी के मन को गहरी ठे स
िगी और उन्होंने तय पकया पक जब तक अिना खुद का प्रेस नहीं होगा, यह कायच आगे नहीं
बढ़े गा। बस यही एक छोिा सा संकल्प गीता प्रेस गोरखिुर की स्थािना का आधार बना। उनके
भाई गोयन्का जी व्यािार तब बां कु़िा (बंगाि) में था और वे गीता िर प्रवर्न के पसिपसिे में
प्राय: बाहर ही रहा करते थे। तब समस्या यह थी पक प्रेस कहााँ िगाई जाए। उनके पमत्र
घनश्याम दास जािान गोरखिुर में ही व्यािार करते थे। उन्होने प्रेस गोरखिुर में ही िगाए
जाने और इस कायच में भरिूर सहयोग दे ने का आश्वासन पदया। इसके बाद २९ अप्रैि १९२३
ई० को गीता प्रेस की स्थािना हई।

== कल्याण का आरम्भ संवत १९८३ पवक्रमी (१९२६ ई० ) में मारवा़िी अग्रवाि महासभा का
वापषचक अपधवेशन पदल्ली में हआ। इसके सभािपत थे सेठ जमनािाि बजाज और स्वागताध्यक्ष
थे श्री आत्माराम खेमका | आरम्भ में खेमकाजी ने कुछ कारणों से स्वागताध्यक्ष होना अस्वीकार
कर पदया था , बाद में सेठ जयदयाि गोयन्दका के आग्रह से वे तैयार हो गए। अपधवेशन
जल्दी प्रारम्भ होनेवािा था प्रश्न उढ़ा स्वागत भाषण पिखने का | खेमका जी शास्त्रज्ञ तथा पवद्वान
थे , िर उन्हें पहन्दी पिखने का अभ्यास नहीं था। उन्होंने श्री गोयन्दका जी से भाषण तैयार
करवा दे ने की प्राथचना की। श्री गोयन्दका जी ने िोद्दार जी को पदल्ली जाकर भाषण तैयार
करने का आदे श पदया। िोद्दार जी पदल्ली गए और २४ घंिे में ही एक अत्यंत सार गपभचत
भाषण पिखकर मुपद्रत करा पदया। िोग उसमें व्यक्त पवर्ारों से बहत प्रभापवत हए | अपधवेशन
में भाग िेने के पिए से ठ घनश्याम दास पबरिा भी आये थे। उनका यद्यपि िोदार जी से िूणच
मतैक्य नहीं था तथापि वह भाषण उन्हें िसंद आया। दू सरे पदन अिनी प्रपतक्रया व्यक्त करते
हए उन्होंने िोद्दार जी से कहा -- भेजी तुमिोगों के क्या पवर्ार हैं कैसे हैं कहां तक ठीक हैं
इसकी आिोर्ना हमें नहीं करनी | िर इनका प्रर्ार तुमिोगों द्वारा समाज में हो रहा है जनता
इसे दू र तक मानती भी है । यपद तुमिोगों के िास अिने पवर्ारों और पसद्धां तों का एक "
ित्र"होता तो तु मिोगों को और भी सफिता पमिती | तु मिोग अिने पवर्ारों का एक ित्र
पनकािो |िोद्दार जी ने कहा -- बात तो ठीक है िर मेरा इस सम्बन्ध में कोई अनुभव नहीं है |
पबरिा जी ने आग्रह करते हए कहा प्रयास करो | उस समय बात यहीं समाप्त हो गयी |
घनश्याम दास जी ने िरामशच के रूि में एक बात कह दी थी | िर यही बात कल्याण मापसक
के जन्म का कारण बन गयी | अपधवेशन समाप्त होने के बाद सभी िोग अिने अिने स्थान
र्िे गए | िोद्दार जी बम्बई की ओर र्िे | उन पदनों पदल्ली से बम्बई जाने के पिए रे वा़िी
होकर अहमदाबाद जाना ि़िता था और वहां से गाडी बदि कर बम्बई | िोद्दार जी पदल्ली से
रे वा़िी गए | रे वा़िी से पभवानी का आधे घंिे का रास्ता था | िोद्दार जी र्ूरू से उनपदनों पभवानी
आये सेठ जयदयाि गोयन्दकाजी से पमिने पभवानी गए एक पदन वहां रहे | सेठ जी को बााँ कु़िा
जाना था और िोद्दार जी को बम्बई | दोनों पभवानी से ररवा़िी तक साथ आये | रास्ते में उन्होंने
घंश्याम्दास्जी द्वारा पदए गए सुझाव िर र्र्ाच की सेठ जी को यह पवर्ार अच्छा िगा सेठ जी
के साथ उनके अनुगत िच्छीराम मुरोपदया भी थे | उन्होंने भी सहमती जताई | उन्होंने िोद्दार
जी से वर्न िे पिया पक वे प्रत्येक पदन दो घंिा समय सम्पादन के पिए दें गे | िोद्दार जी ने
अिनी अनुभवहीनता के बारे में बात की िर मुरोपदयाजी नें उन्हें र्ुि करा पदया | अब नाम का
प्रश्न आया | िोद्दार जी के मुंह से पनकि गया " कल्याण " | सेठ जी तथा मुरोपदया जी को
यह नाम िसंद आया | यह बात र्ैत्र शुक्ल ९ सं वत १९८३ श्री राम नवमी के पदन की है | इसी
के साथ तय हो गया पक अक्षय तृतीया (वैशाख शुक्ल तृतीया ) से कल्याण का आरम्भ कर
पदया जाय |

एक पदन खेमराज श्री कृष्ण दास प्रेस के मापिक सेठ श्री कृष्ण दास जी िोद्दार जी से पमिने
आये | बातर्ीत के दौरान कल्याण की र्र्ाच हई | श्री कृष्ण दास जी ने कहा -- भाई जी ित्र
अवश्य पनकिना र्ापहए | िोद्दार जी ने उनके सामने भी अनुभव की कमी की बात की | श्री
कृष्ण दस जी ने सहयोग दे नें की बात की | िोद्दार जी आनाकानी कर रहे थे | तब श्री
कृष्णदास जी ने िोद्दार जी से कहा -- आिको भगवान् नें आसाम में भूकंि से बर्ाया |
भगवान् आिसे कोई ब़िा काम करवाना र्ाहते हैं | िोद्दार जी इस तकच के आगे मौन हो गए |
अब "कल्याण " का िं जीकरण हो गया और सामग्री एकत्र कर प्रेस में छिने को दे पदया
गया। श्रावण कृष्ण ११ सं वत १९८३ पवक्रमी को "कल्याण का िहिा अं क पनकिा | प्रकाशक था
सत्संग भवन नेमानी बाडी बम्बई | इस प्रकार कल्याण का प्रथम अंक पनकिा अंक सबको
बहत िसंद आया | प्रारम्भ में इसकी १६०० ग्राहक थे सब बनाए हए थे बने हए नहीं | कल्याण
के पिए गां धी जी से िोद्दार जी ने आशीवाच द मााँ गा | गााँ धी जी ने पवज्ञािन और िुस्तक समीक्षा
न छािने की सिाह दी | िोद्दार जी इसे पशरोधायच पकया और आजीवन इसका पनवाच ह पकया |
आज भी कल्याण में पवज्ञािन नहीं छािा जाता | कल्याण के १२ साधारण अंक तथा दू सरे वषच
का िहिा अं क भगवन्नामां क पवशेषां क बम्बई से पनकिा | बाद में इसका प्रकाशन (१९२७ ई ०
) से गीताप्रेस गोरखिुर से होने िगा | इस पनपमत्त िोद्दार जी बम्बई से गोरखिुर आ गए |
(सन्दभच "कल्याण िथ पनमाच ता और राही " िे ० भगवती प्रसाद पसंह प्रकाशक राधामाधव
संस्थान गोरखिुर संस्करण संवत २०२७ पव० )

भाईजी ने कल्याण को एक आदशच और रुपर्कर िपत्रका का रूि दे ने के पिए तब दे श भर


के महात्माओं धापमचक पवषयों में दखि रखने वािे िेखकों और संतों आपद को ित्र पिखकर
इसके पिए पवपवध पवषयों िर िेख आमंपत्रत पकए। इसके साथ ही उन्होंने श्रेष्ठतम किाकारों से
दे वी-दे वताओं के आकषच क पर्त्र बनवाए और उनको कल्याण में प्रकापशत पकया। भाई जी इस
कायच में इतने तल्लीन हो गए पक वे अिना िूरा समय इसके पिए दे ने िगे। कल्याण की
सामग्री के संिादन से िेकर उसके रं ग-रुि को अंपतम रूि दे ने का कायच भी भाईजी ही
दे खते थे। इसके पिए वे प्रपतपदन अठारह घंिे दे ते थे। कल्याण को उन्होंने मात्र पहं दू धमच की
ही िपत्रका के रूि में िहर्ान दे ने की बजाय उसमे सभी धमों के आर्ायों, जैन मुपनयों,
रामानुज, पनंबाकच, माध्व आपद संप्रदायों के पवद्वानों के िेखों का प्रकाशन पकया।

गीताप्रेस
भाईजी ने अिने जीवन काि में गीता प्रेस गोरखिुर में िौने छ: सौ से ज्यादा िुस्तकें प्रकापशत
की। इसके साथ ही उन्होंने इस बात का भी ध्यान रखा पक िाठकों को ये िुस्तकें िागत मूल्य
िर ही उििब्ध हों। कल्याण को और भी रोर्क व ज्ञानवधचक बनाने के पिए समय-समय िर
इसके अिग-अिग पवषयों िर पवशेषां क प्रकापशत पकए गए। भाई जी ने अिने जीवन काि में
प्रर्ार-प्रसार से दू र रहकर ऐसे ऐसे कायों को अंजाम पदया पजसकी बस कल्पना ही की जा
सकती है । १९३६ में गोरखिुर में भयंकर बाढ़ आगई थी। बाढ़ िीप़ित क्षेत्र के पनरीक्षण के पिए
िं. जवाहरिाि नेहरु -जब गोरखिुर आए तो तत्कािीन अंग्रेज सरकार के दबाव में उन्हें वहााँ
पकसी भी व्यस्क्त ने कार उििब्ध नहीं कराई, क्योंपक अंग्रेज किेक्टर ने सभी िोगों को धौंस दे
रखी थी पक जो भी नेहरु जी को कार दे गा उसका नाम पवद्रोपहयों की सूर्ी में पिख पदया
जाएगा। िेपकन भाई जी ने अिनी कार नेहरु जी को दे दी।

अकाल
१९३८ में जब राजस्थान में भयंकर अकाि ि़िा तो भाई जी अकाि िीप़ित क्षेत्र में िहाँ र्े और
उन्होंने अकाि िीप़ितों के साथ ही मवेपशयों के पिए भी र्ारे की व्यवस्था करवाई। बद्रीनाथ,
जगन्नाथिुरी, रामेश्वरम, द्वारका, काि़िी श्रीरं गम आपद स्थानों िर वेद-भवन तथा पवद्याियों की
स्थािना में भाईजी ने महत्विूणच भूपमका पनभाई। अिने जीवन-काि में भाई जी ने २५ हजार से
ज्यादा िृष्ठों का सापहत्य-सृजन पकया।

पफल्ों का समाज िर कैसा दु ष्पररणाम आने वािा है इन बातों की र्ेतावनी भाई जी ने अिनी
िुस्तक `पसनेमा मनोरं जन या पवनाश' में दे दी थी। दहे ज के नाम िर नारी उत्पी़िन को िेकर
भाई जी ने `पववाह में दहे ज' जैसी एक प्रेरक िुस्तक पिखकर इस बुराई िर अिने गंभीर
पवर्ार व्यक्त पकए थे। मपहिाओं की पशक्षा के िक्षधर भाई जी ने `नारी पशक्षा' के नाम से और
पशक्षा-िध्दपत में सुधार के पिए वतचमान पशक्षा के नाम से एक िुस्तक पिखी। गोरक्षा आं दोिन
में भी भाई जी ने भरिूर योगदान पदया। सन १९६६ के पवराि गोरक्षा आन्दोिन मे महात्मा
रामर्न्द्र वीर द्वारा पकये गये १६६ पदन के अनशन का इन्होने िुरा समथचन पकया। भाई जी के
जीवन से कई र्मत्काररक और प्रेरक घिनाएं जु ़िी हई है । िेपकन उनके जीवन की सबसे
महत्विूणच बात यही है पक एक संिन्न िररवार से संबंध रखने और अिने जीवन काि में कई
महत्विूणच िोगों से जु़िे होने और उनकी पनकिता प्राप्त करने के बावजूद भाई जी को
अपभमान छू तक नहीं गया था। वे आजीवन आम आदमी के पिए सोर्ते रहे । इस दे श में
सनातन धमच और धापमचक सापहत्य के प्रर्ार और प्रसार में उनका योगदान उल्लेखनीय है । गीता
प्रेस गोरखिुर से िुस्तकों के प्रकाशन से होने वािी आमदनी में से उन्होंने एक पहस्सा भी नहीं
पिया और इस बात का पिस्खत दस्तावेज बनाया पक उनके िररवार का कोई भी सदस्य इसकी
आमदनी में पहस्सेदार नहीं रहे गा।

अंग्रेजों के जमाने में गोरखिुर में उनकी धमच व सापहत्य सेवा तथा उनकी िोकपप्रयता को दे खते
हए तत्कािीन अंग्रेज किेक्टर िे डिे ने उन्हें `राय साहब' की उिापध से अिंकृत करने का
प्रस्ताव रखा था, िेपकन भाई जी ने पवनम्रतािूवचक इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर पदया। इसके
बाद अंग्रेज कपमश्नर होबिच ने `राय बहादु र' की उिापध दे ने का प्रस्ताव रखा िेपकन भाई जी ने
इस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं पकया।

दे श की स्वाधीनता के बाद डॉ, संिूणाच नंद, कन्है यािाि मुंशी और अन्य िोगों के िरामशच से
तत्कािीन केंद्रीय गृह मंत्री गोपवंद वल्लभ िंत ने भाई जी को `भारत रत्न' की उिापध से अिंकृत
करने का प्रस्ताव रखा िेपकन भाई जी ने इसमें भी कोई रुपर् नहीं पदखाई।

समापन
२२ मार्च १९७१ को भाई जी ने इस नश्वर शरीर का त्याग कर पदया और अिने िीछे वे `गीता
प्रेस गोरखिुर' के नाम से एक ऐसा केंद्र छो़ि गए, जो हमारी संस्कृपत को िूरे पवश्व में फैिाने में
एक अग्रणी भूपमका पनभा रहा है ।

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